Wednesday, May 12, 2021

सूरए ताहा 20

 

20 सूरए ताहा

सूराए ताहा मक्के में नाज़िल हुआ और इसकी एक सौ पैतीस आयतें हैं
खु़दा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा मेहरबान रहम वाला है
ऐ ता हा (रसूलअल्लाह) 1 हमने तुम पर कु़रान इसलिए नाजि़ल नहीं किया कि तुम (इस क़दर) मशक़्क़त उठाओ 2 मगर जो शख़्स खु़दा से डरता है उसके लिए नसीहत (क़रार दिया है) 3 (ये) उस शैह की तरफ़ से नाजि़ल हुआ है जिसने ज़मीन और ऊँचे-ऊँचे आसमानों को पैदा किया 4 वही रहमान है जो अर्श पर (हुक्मरानी के लिए) आमादा व मुस्तईद है 5 जो कुछ आसमानों में है और जो कुछ ज़मीन में है और जो कुछ दोनों के बीच में है और जो कुछ ज़मीन के नीचे है (ग़रज़ सब कुछ) उसी का है 6 और अगर तू पुकार कर बात करे (तो भी आहिस्ता करे तो भी) वह यक़ीनन भेद और उससे ज़्यादा पोशीदा चीज़ को जानता है 7 अल्लाह (वह माबूद है कि) उसके सिवा कोइ माबूद नहीं है (अच्छे-अच्छे) उसी के नाम हैं 8 और (ऐ रसूल) क्या तुम तक मूसा की ख़बर पहुँची है कि जब उन्होंने दूर से आग देखी 9 तो अपने घर के लोगों से कहने लगे कि तुम लोग (ज़रा यहीं) ठहरो मैंने आग देखी है क्या अजब है कि मैं वहाँ (जाकर) उसमें से एक अँगारा तुम्हारे पास ले आऊँ या आग के पास किसी राह का पता पा जाऊँ 10 फिर जब मूसा आग के पास आए तो उन्हें आवाज आई 11 कि ऐ मूसा बेशक मैं ही तुम्हारा परवरदिगार हूँ तो तुम अपनी जूतियाँ उतार डालो क्योंकि तुम (इस वक़्त) तुआ (नामी) पाक़ीज़ा चटियल मैदान में हो 12 और मैंने तुमको पैग़म्बरी के वास्ते मुन्तखि़ब किया (चुन लिया) है तो जो कुछ तुम्हारी तरफ़ वही की जाती है उसे कान लगा कर सुनो 13
इसमें शक नहीं कि मैं ही वह अल्लाह हूँ कि मेरे सिवा कोई माबूद नहीं तो मेरी ही इबादत करो और मेरी याद के लिए नमाज़ बराबर पढ़ा करो 14 (क्योंकि) क़यामत ज़रूर आने वाली है और मैं उसे लामहौला छिपाए रखूँगा ताकि हर शख़्स (उसके ख़ौफ से नेकी करे) और जैसी कोशिश की है उसका उसे बदला दिया जाए 15 तो (कहीं) ऐसा न हो कि जो शख़्स उसे दिल से नहीं मानता और अपनी नफ़सियानी ख़्वाहिश के पीछे पड़ा वह तुम्हें इस (फिक्र) से रोक दे तो तुम तबाह हो जाओगे 16 और ऐ मूसा ये तुम्हारे दाहिने हाथ में क्या चीज़ है 17 अर्ज़ की ये तो मेरी लाठी है मैं उस पर सहारा करता हूँ और इससे अपनी बकरियों पर (और दरख़्तों की) पत्तियाँ झाड़ता हूँ और उसमें मेरे और भी मतलब हैं 18 फ़रमाया ऐ मूसा उसको ज़रा ज़मीन पर डाल तो दो मूसा ने उसे डाल दिया 19 तो फ़ौरन वह साँप बनकर दौड़ने लगा (ये देखकर मूसा भागे) 20 तो फ़रमाया कि तुम इसको पकड़ लो और डरो नहीं मैं अभी इसकी पहली सी सूरत फिर किए देता हूँ 21 और अपने हाथ को समेंट कर अपने बग़ल में तो कर लो (फिर देखो कि) वह बग़ैर किसी बीमारी के सफे़द चमकता दमकता हुआ निकलेगा ये दूसरा मौजिज़ा है 22 (ये) ताकि हम तुमको अपनी (कु़दरत की) बड़ी-बड़ी निशानियाँ दिखाएँ 23 अब तुम फ़िरऔन के पास जाओ उसने बहुत सर उठाया है 24 मूसा ने अर्ज़ की परवरदिगार (मैं जाता तो हूँ) मगर तू मेरे लिए मेरे सीने को कुशादा फरमा और दिलेर बना 25 और मेरा काम मेरे लिए आसान कर दे 26 और मेरी ज़बान से लुक़नत की गिरह खोल दे 27 ताकि लोग मेरी बात अच्छी तरह समझें और 28 मेरे कुनबे वालो में से मेरे भाई हारून 29 को मेरा वज़ीर बोझ बटाने वाला बना दे 30 उसके ज़रिए से मेरी पुश्त मज़बूत कर दे 31 और मेरे काम में उसको मेरा शरीक बना 32 ताकि हम दोनों (मिलकर) कसरत से तेरी तसबीह करें 33 और कसरत से तेरी याद करें 34 तू तो हमारी हालत देख ही रहा है 35 फ़रमाया ऐ मूसा तुम्हारी सब दरख़्वास्तें मंज़ूर की गई 36 और हम तो तुम पर एक बार और एहसान कर चुके हैं 37 जब हमने तुम्हारी माँ को इलहाम किया जो अब तुम्हें वहीके ज़रिए से बताया जाता है 38 कि तुम इसे (मूसा को) सन्दूक़ में रखकर सन्दूक़ को दरिया में डाल दो फिर दरिया उसे ढकेल कर किनारे डाल देगा कि मूसा को मेरा दुशमन और मूसा का दुशमन (फ़िरऔन) उठा लेगा और मैंने तुम पर अपनी मोहब्बत को डाल दिया जो देखता (प्यार करता) ताकि तुम मेरी ख़ास निगरानी में पाले पोसे जाओ 39 (उस वक़्त) जब तुम्हारी बहन चली (और फिर उनके घर में आकर) कहने लगी कि कहो तो मैं तुम्हें ऐसी दाया बताऊँ कि जो इसे अच्छी तरह पाले तो(इस तदबीर से) हमने फिर तुमको तुम्हारी माँ के पास पहुँचा दिया ताकि उसकी आँखें ठन्डी रहें और तुम्हारी (जुदाई पर) कुढ़े नहीं और तुमने एक शख़्स (ख़बती) को मार डाला था और सख़्त परेशान थे तो हमने तुमको (इस) ग़म से नजात दी और हमने तुम्हारा अच्छी तरह इम्तिहान कर लिया फिर तुम कई बरस तक मदीने के लोगों में जाकर रहे ऐ मूसा फिर तुम (उम्र के) एक अन्दाजे़ पर आ गए नबूवत के क़ायल हुए 40 और मैंने तुमको अपनी रिसालत के वास्ते मुन्तख़ब किया 41 तुम अपने भाई समैत हमारे मौजिज़े लेकर जाओ और (देखो) मेरी याद में सुस्ती न करना 42 तुम दोनों फ़िरऔन के पास जाओ बेशक वह बहुत सरकश हो गया है 43 फिर उससे (जाकर) नरमी से बातें करो ताकि वह नसीहत मान ले या डर जाए 44 दोनों ने अर्ज़ की ऐ हमारे पालने वाले हम डरते हैं कि कहीं वह हम पर ज़्यादती (न) कर बैठे या और ज़्यादा सरकशी कर ले 45 फ़रमाया तुम डरो नहीं मैं तुम्हारे साथ हूँ (सब कुछ) सुनता और देखता हूँ 46 ग़रज़ तुम दोनों उसके पास जाओ और कहो कि हम आप के परवरदिगार के रसूल हैं तो बनी इसराइल को हमारे साथ भेज दीजिए और उन्हें सताइए नहीं हम आपके पास आपके परवरदिगार का मौजिज़ा लेकर आए हैं और जो राहे रास्त की पैरवी करे उसी के लिए सलामती है 47 हमारे पास खु़दा की तरफ से ये वहीनाजि़ल हुई है कि यक़ीनन अज़ाब उसी शख़्स पर है जो (खु़दा की आयतों को) झुठलाए और उसके हुक्म से मुँह मोड़े 48 (ग़रज़ गए और कहा) फ़िरऔन ने पूछा ऐ मूसा आखि़र तुम दोनों का परवरदिगार कौन है 49 मूसा ने कहा हमारा परवरदिगार वह है जिसने हर चीज़ को उसके (मुनासिब) सूरत अता फरमाई फिर उसी ने जि़न्दगी बसर करने के तरीक़े बताए 50 फ़िरऔन ने पूछा भला अगले लोगों का हाल (तो बताओ) कि क्या हुआ 51 मूसा ने कहा इन बातों का इल्म मेरे परवरदिगार के पास एक किताब (लौहे महफूज़) में (लिखा हुआ) है मेरा परवरदिगार न बहकता है न भूलता है 52 वह वही है जिसने तुम्हारे (फ़ायदे के) वास्ते ज़मीन को बिछौना बनाया और तुम्हारे लिए उसमें राहें निकाली और उसी ने आसमान से पानी बरसाया फिर (खु़दा फरमाता है कि) हम ही ने उस पानी के ज़रिए से मुख़्तलिफ़ कि़स्मों की घासे निकाली 53 (ताकि) तुम खु़द भी खाओ और अपने चौपायों को भी चराओ कुछ शक नहीं कि इसमें अक़्लमन्दों के वास्ते (क़ुदरते खु़दा की) बहुत सी निशानियाँ हैं 54 हमने इसी ज़मीन से तुम को पैदा किया और (मरने के बाद) इसमें लौटा कर लाएँगे और उसी से दूसरी बार (क़यामत के दिन) तुमको निकाल खड़ा करेंगे 55 और मैंने फ़िरऔन को अपनी सारी निशानियाँ दिखा दी इस पर भी उसने सबको झुठला दिया और न माना 56 (और) कहने लगा ऐ मूसा क्या तुम हमारे पास इसलिए आए हो कि हम को हमारे मुल्क (मिस्र से) अपने जादू के ज़ोर से निकाल बाहर करो 57 अच्छा तो (रहो) हम भी तुम्हारे सामने ऐसा जादू पेश करते हैं फिर तुम अपने और हमारे दरमियान एक वक़्त मुक़र्रर करो कि न हम उसके खि़लाफ करे और न तुम और मुक़ाबला एक साफ़ खुले मैदान में हो 58 मूसा ने कहा तुम्हारे (मुक़ाबले) की मीयाद ज़ीनत (ईद) का दिन है और उस रोज़ सब लोग दिन चढ़े जमा किए जाँए 59 उसके बाद फ़िरऔन (अपनी जगह) लौट गया फिर अपने चलत्तर (जादू के सामान) जमा करने लगा फिर (मुक़ाबले को) आ मौजूद हुआ 60 मूसा ने (फ़िरऔनयो से) कहा तुम्हारा नास हो खु़दा पर झूठी-झूठी इफ़्तेरा पर्वाज़ियाँ न करो वरना वह अज़ाब (नाजि़ल करके) इससे तुम्हारा मलया मेट कर छोड़ेगा और (याद रखो कि) जिसने इफ़्तेरा पर्वाज़ियाँ की वह यकी़नन नामुराद रहा 61 इस पर वह लोग अपने काम में बाहम झगड़ने और सरगोशियाँ करने लगे 62 (आखि़र) वह लोग बोल उठे कि ये दोनों यक़ीनन जादूगर हैं और चाहते हैं कि अपने जादू (के ज़ोर) से तुम लोगों को तुम्हारे मुल्क से निकाल बाहर करें और तुम्हारे अच्छे ख़ासे मज़हब को मिटा छोड़ें 63 तो तुम भी खू़ब अपने चलत्तर (जादू वग़ैरह) दुरूस्त कर लो फिर परा (सफ़) बाँध के (उनके मुक़ाबले में) आ पड़ो और जो आज डर रहा हो वही फायज़ुल मराम रहा 64 ग़रज़ जादूगरों ने कहा (ऐ मूसा) या तो तुम ही (अपने जादू) फेंको और या ये कि पहले जो जादू फेंके वह हम ही हों 65 मूसा ने कहा (मैं नहीं डालूँगा) बल्कि तुम ही पहले डालो (ग़रज़ उन्होंने अपने करतब दिखाए) तो बस मूसा को उनके जादू (के ज़ोर से) ऐसा मालूम हुआ कि उनकी रस्सियाँ और उनकी छडि़याँ दौड़ रही हैं 66 तो मूसा ने अपने दिल में कुछ दहशत सी पाई 67 हमने कहा (मूसा) इस से डरो नहीं यक़ीनन तुम ही वर रहोगे 68 और तुम्हारे दाहिने हाथ में जो (लाठी) है उसे डाल तो दो कि जो करतब उन लोगों ने की है उसे हड़प कर जाए क्योंकि उन लोगों ने जो कुछ करतब की वह एक जादूगर की करतब है और जादूगर जहाँ जाए कामयाब नहीं हो सकता (ग़रज़ मूसा की लाठी ने) सब हड़प कर लिया (ये देखते ही) 69 वह सब जादूगर सजदे में गिर पड़े (और कहने लगे) कि हम मूसा और हारून के परवरदिगार पर ईमान ले आए 70 फ़िरऔन ने उन लोगों से कहा (हाए) इससे पहले कि हम तुमको इजाज़त दें तुम उस पर ईमान ले आए इसमें शक नहीं कि ये तुम सबका बड़ा (गुरू) है जिसने तुमको जादू सिखाया है तो मैं तुम्हारे एक तरफ़ के हाथ और दूसरी तरफ़ के पाँव ज़रूर काट डालूँगा और तुम्हें खु़रमों की शाख़ों पर सूली चढ़ा दूँगा और उस वक़्त तुमको (अच्छी तरह) मालूम हो जाएगा कि हम (दोनों) फरीक़ों से अज़ाब में ज़्यादा बढ़ा हुआ कौन और किसको क़याम ज़्यादा है 71 जादूगर बोले कि ऐसे वाजे़ए व रौशन मौजिज़ात जो हमारे सामने आए उन पर और जिस (खु़दा) ने हमको पैदा किया उस पर तो हम तुमको किसी तरह तरजीह नहीं दे सकते तो जो तुझे करना हो कर गुज़र तू बस दुनिया की (इसी ज़रा)सी जि़न्दगी पर हुकूमत कर सकता है 72 (और कहा) हम तो अपने परवरदिगार पर इसलिए ईमान लाए हैं ताकि हमारे वास्ते सारे गुनाह माफ़ कर दे और (ख़ास कर) जिस पर तूने हमें मजबूर किया था और खु़दा ही सबसे बेहतर है और (उसी को) सबसे ज़्यादा क़याम है 73  इसमें शक नहीं कि जो शख़्स मुजरिम होकर अपने परवरदिगार के सामने हाजि़र होगा तो उसके लिए यक़ीनन जहन्नुम (धरा हुआ) है जिसमें न तो वह मरे ही गा और न जि़न्दा ही रहेगा 74 (सिसकता रहेगा) और जो शख़्स उसके सामने ईमानदार हो कर हाजि़र होगा और उसने अच्छे-अच्छे काम भी किए होंगे तो ऐसे ही लोग हैं जिनके लिए बड़े-बड़े बुलन्द रूतबे हैं 75 वह सदाबहार बाग़ात जिनके नीचे नहरें जारी हैं वह लोग उसमें हमेशा रहेंगे और जो गुनाह से पाक व पाकीज़ा रहे उस का यही सिला है 76 और हमने मूसा के पास वहीभेजी कि मेरे बन्दों (बनी इसराइल) को (मिस्र से) रातों रात निकाल ले जाओ फिर दरिया में (लाठी मारकर) उनके लिए एक सूखी राह निकालो और तुमको पीछा करने का न कोई खौ़फ रहेगा न (डूबने की) कोई दहशत 77 ग़रज़ फ़िरऔन ने अपने लशकर समैत उनका पीछा किया फिर दरिया (के पानी का रेला) जैसा कुछ उन पर छाया गया वह छा गया 78 और फ़िरऔन ने अपनी क़ौम को गुमराह (करके हलाक) कर डाला और उनकी हिदायत न की 79 ऐ बनी इसराइल हमने तुमको तुम्हारे दुश्मन (के पंजे) से छुड़ाया और तुम से (कोहेतूर) के दाहिने तरफ का वायदा किया और हम ही ने तुम पर मन व सलवा नाजि़ल किया 80 और (फ़रमाया) कि हमने जो पाक व पाक़ीज़ा रोज़ी तुम्हें दे रखी है उसमें से खाओ (पियो) और उसमें (किसी कि़स्म की) शरारत न करो वरना तुम पर मेरा अज़ाब नाजि़ल हो जाएगा और (याद रखो कि) जिस पर मेरा ग़ज़ब नाजि़ल हुआ तो वह यक़ीनन गुमराह (हलाक) हुआ (81) और जो शख़्स तौबा करे और ईमान लाए और अच्छे काम करे फिर साबित क़दम रहे तो हम उसको ज़रूर बख़्शने वाले हैं 82 फिर जब मूसा सत्तर आदमियों केा लेकर चले और खु़द आगे बढ़ आए तो हमने कहा कि (ऐ मूसा तुमने अपनी क़ौम से आगे चलने में क्यों जल्दी की) 83 अर्ज़ की वह भी तो मेरे ही पीछे चले आ रहे हैं और इसी लिए मैं जल्दी करके तेरे पास इसलिए आगे बढ़ आया हूँ ताकि तू (मुझसे) खु़श रहे 84 फ़रमाया तो हमने तुम्हारे (आने के बाद) तुम्हारी क़ौम का इम्तिहान लिया और सामरी ने उनको गुमराह कर छोड़ा 85 (तो मूसा) गुस्से में भरे पछताए हुए अपनी क़ौम की तरफ पलटे और आकर कहने लगे ऐ मेरी (कमबक़्त) क़ौम क्या तुमसे तुम्हारे परवरदिगार ने एक अच्छा वायदा (तौरेत देने का) न किया था तुम्हारे वायदे में अरसा लग गया या तुमने ये चाहा कि तुम पर तुम्हारे परवरदिगार का ग़ज़ब टूंट पड़े कि तुमने मेरे वायदे (खु़दा की परसतिश) के खि़लाफ किया 86 वह लोग कहने लगे हमने आपके वायदे के खि़लाफ नहीं किया बल्कि (बात ये हुई कि फ़िरऔन की) क़ौम के ज़ेवर के बोझे जो (मिस्र से निकलते वक़्त) हम पर लद गए थे उनको हम लोगों ने (सामरी के कहने से आग में) डाल दिया फिर सामरी ने भी डाल दिया 87 फिर सामरी ने उन लोगों के लिए (उसी जे़वर से) एक बछड़े की मूरत बनाई जिसकी आवाज़ भी बछड़े की सी थी उस पर बाज़ लोग कहने लगे यही तुम्हारा (भी) माबूद और मूसा का (भी) माबूद है मगर वह भूल गया है 88 भला इनको इतनी भी न सूझी कि ये बछड़ा न तो उन लोगों को पलट कर उन की बात का जवाब ही देता है और न उनका ज़रर ही उस के हाथ में है और न नफ़ा 89 और हारून ने उनसे पहले कहा भी था कि ऐ मेरी क़ौम तुम्हारा सिर्फ़ इसके ज़रिये से इम्तिहान किया जा रहा है और इसमें शक नहीं कि तम्हारा परवरदिगार (बस खु़दाए रहमान है) तो तुम मेरी पैरवी करो और मेरा कहा मानो 90 तो वह लोग कहने लगे जब तक मूसा हमारे पास पलट कर न आएँ हम तो बराबर इसकी परसतिश पर डटे बैठे रहेंगे 91 मूसा ने हारून की तरफ खि़ताब करके कहा ऐ हारून जब तुमने उनको देख लिया था गमुराह हो गए हैं 92 तो तुम्हें मेरी पैरवी (क़ता) करने को किसने मना किया तो क्या तुमने मेरे हुक्म की नाफ़रमानी की 93 हारून ने कहा ऐ मेरे माँजाए (भाई) मेरी दाढ़ी न पकडिऐ और न मेरे सर (के बाल) मैं तो उससे डरा कि (कहीं) आप (वापस आकर) ये (न) कहिए कि तुमने बनी इसराईल में फूट डाल दी और मेरी बात का भी ख़्याल न रखा 94 तब सामरी से कहने लगे कि ओ सामरी तेरा क्या हाल है 95 उसने (जवाब में) कहा मुझे वह चीज़ दिखाई दी जो औरों को न सूझी (जिबरील घोड़े पर सवार जा रहे थे) तो मैंने जिबरील फरिश्ते (के घोड़े) के निशाने क़दम की एक मुट्ठी (ख़ाक) की उठा ली फिर मैंने (बछड़े के क़ालिब में) डाल दी (तो वह बोलेने लगा और उस वक़्त मुझे मेरे नफ्स ने यही सुझाया 96 मूसा ने कहा चल (दूर हो) तेरे लिए (इस दुनिया की) जि़न्दगी में तो (ये सज़ा है) तू कहता फि़रेगा कि मुझे न छूना (वरना बुख़ार चढ़ जाएगा) और (आखि़रत में भी) यक़ीनी तेरे लिए (अज़ाब का) वायदा है कि हरगिज़ तुझसे खि़लाफ़ न किया जाएगा और तू अपने माबूद को तो देख जिस (की इबादत) पर तू डट बैठा था कि हम उसे यक़ीनन जलाकर (राख) कर डालेंगे फिर हम उसे तितिर बितिर करके दरिया में उड़ा देगें 97 तुम्हारा माबूद तो बस वही ख़ुदा है जिसके सिवा कोई और माबूद बरहक़ नहीं कि उसका इल्म हर चीज़ पर छा गया है 98 (ऐ रसूल) हम तुम्हारे सामने यूँ वाक़ेयात बयान करते हैं जो गुज़र चुके और हमने ही तुम्हारे पास अपनी बारगाह से कु़रआन अता किया 99 जिसने उससे मुँह फेरा वह क़यामत के दिन यक़ीनन (अपने बुरे आमाल का) बोझ उठाएंगे 100 और उसी हाल में हमेशा रहेंगे और क्या ही बुरा बोझ है क़यामत के दिन ये लोग उठाए होंगे 101 जिस दिन सूर फूँका जाएगा और हम उस दिन गुनाहगारों को (उनकी) आँखें मैली (अन्धी) करके (आमने-सामने) जमा करेंगे 102 (और) आपस में चुपके-चुपके कहते होंगे कि (दुनिया या क़ब्र में) हम लोग (बहुत से बहुत) नौ दस दिन ठहरे होंगे 103 जो कुछ ये लोग (उस दिन) कहेंगे हम खू़ब जानते हैं कि जो इनमें सबसे ज़्यादा होशियार होगा बोल उठेगा कि तुम बस (बहुत से बहुत) एक दिन ठहरे होगे 104 (और ऐ रसूल) तुम से लोग पहाड़ों के बारे में पूछा करते हैं (कि क़यामत के रोज़ क्या होगा) तो तुम कह दो कि मेरा परवरदिगार बिल्कुल रेज़ा रेज़ा करके उड़ा डालेगा 105 और ज़मीन को एक चटियल मैदान कर छोड़ेगा 106 कि (ऐ शख़्स) न तो तू उसमें मोड़ देखेगा और न ऊँच-नीच 107 उस दिन लोग एक पुकारने वाले इसराफ़ील की आवाज़ के पीछे (इस तरह सीधे) दौड़ पड़ेगे कि उसमें कुछ भी कज़ी न होगी और आवाज़े उस दिन खु़दा के सामने (इस तरह) घिघियाएगें कि तू घुनघुनाहट के सिवा और कुछ न सुनेगा 108 उस दिन किसी की सिफ़ारिश काम न आएगी मगर जिसको खु़दा ने इजाज़त दी हो और उसका बोलना पसन्द करे 109 जो कुछ उन लोगों के सामने है और जो कुछ उनके पीछे है (ग़रज़ सब कुछ) वह जानता है और ये लोग अपने इल्म से उसपर हावी नहीं हो सकते 110 और (क़यामत में) सारी (खु़दाई के) मुँह जि़न्दा और बाक़ी रहने वाले खु़दा के सामने झुक जाएँगे और जिसने जु़ल्म का बोझ (अपने सर पर) उठाया वह यक़ीनन नाकाम रहा 111 और जिसने अच्छे-अच्छे काम किए और वह मोमिन भी है तो उसको न किसी तरह की बेइन्साफ़ी का डर है और न किसी नुक़सान का 112 हमने उसको उसी तरह अरबी ज़बान का कु़रान नाजि़ल फ़रमाया और उसमें अज़ाब के तरह-तरह के वायदे बयान किए ताकि ये लोग परहेज़गार बनें या उनके मिज़ाज में इबरत पैदा कर दे 113 पस (दो जहाँ का) सच्चा बादशाह खु़दा बरतर व आला है और (ऐ रसूल) कु़रान के (पढ़ने) में उससे पहले कि तुम पर उसकी वहीपूरी कर दी जाए जल्दी न करो और दुआ करो कि ऐ मेरे पालने वाले मेरे इल्म को और ज़्यादा फ़रमा 114 और हमने आदम से पहले ही एहद ले लिया था कि उस दरख़्त के पास न जाना तो आदम ने उसे तर्क कर दिया और हमने उनमें सबात व इसतेक़लाल न पाया 115 और जब हमने फ़रिश्तों से कहा कि आदम को सजदा करो तो सबने सजदा किया मगर शैतान ने इन्कार किया 116 तो मैंने (आदम से कहा) कि ऐ आदम ये यक़ीनी तुम्हारा और तुम्हारी बीवी का दुशमन है तो कहीं तुम दोनों को बेहिश्त से निकलवा न छोड़े तो तुम (दुनिया की) मुसीबत में फँस जाओ 117 कुछ शक नहीं कि (बेहिश्त में) तुम्हें ये आराम है कि न तो तुम यहाँ भूके रहोगे और न नँगे 118 और न यहाँ प्यासे रहोगे और न धूप खाओगे 119 तो शैतान ने उनके दिल में वसवसा डाला (और) कहा ऐ आदम क्या मैं तम्हें (हमेशगी की जि़न्दगी) का दरख़्त और वह सल्तनत जो कभी ज़ाएल न हो बता दूँ 120 चुनान्चे दोनों मियाँ बीबी ने उसी में से कुछ खाया तो उनका आगा पीछा उनपर ज़ाहिर हो गया और दोनों बेहिश्त के (दरख़्त के) पत्ते अपने आगे पीछे पर चिपकाने लगे और आदम ने अपने परवरदिगार की नाफ़रमानी की तो (राहे सवाब से) बेराह हो गए 121 इसके बाद उनके परवरदिगार ने बर गुज़ीदा किया फिर उनकी तौबा कु़बूल की और उनकी हिदायत की 122 फरमाया कि तुम दोनों बेहिश्त से नीचे उतर जाओ तुम में से एक का एक दुशमन है फिर अगर तुम्हारे पास मेरी तरफ से हिदायत पहुँचे तो (तुम) उसकी पैरवी करना क्योंकि जो शख़्स मेरी हिदायत पर चलेगा न तो गुमराह होगा और न मुसीबत में फँसेगा 123 और जिस शख़्स ने मेरी याद से मुँह फेरा तो उसकी जि़न्दगी बहुत तंगी में बसर होगी और हम उसको क़यामत के दिन अंधा बना के उठाएँगे 124 वह कहेगा इलाही मैं तो (दुनिया में) आँख वाला था तूने मुझे अन्धा करके क्यों उठाया 125 खु़दा फरमाएगा ऐसा ही (होना चाहिए) हमारी आयतें भी तो तेरे पास आई तो तू उन्हें भुला बैठा और इसी तरह आज तू भी भूला दिया जाएगा 126 और जिसने (हद से)तजावुज़ किया और अपने परवरदिगार की आयतों पर इमान न लाया उसको ऐसी ही बदला देगें और आखि़रत का अज़ाब तो यक़ीनी बहुत सख़्त और बहुत देर पा है 127 तो क्या उन (एहले मक्का) को उस (खु़दा) ने ये नहीं बता दिया था कि हमने उनके पहले कितने लोगों को हलाक कर डाला जिनके घरों में ये लोग चलते फिरते हैं इसमें शक नहीं कि उसमें अक़्लमंदों के लिए (कु़दरते खु़दा की) यक़ीनी बहुत सी निशानियाँ हैं 128 और (ऐ रसूल) अगर तुम्हारे परवरदिगार की तरफ से पहले ही एक वायदा और अज़ाब का) एक वक़्त मुअय्यन न होता तो (उनकी हरकतों से) फ़िरऔन पर अज़ाब का आना लाज़मी बात थी 129 (ऐ रसूल) जो कुछ ये कुफ़्फ़ार बका करते हैं तुम उस पर सब्र करो और आफ़ताब निकलने के क़ब्ल और उसके ग़ुरूब होने के क़ब्ल अपने परवरदिगार की हम्दोसना के साथ तसबीह किया करो और कुछ रात के वक़्तों में और दिन के किनारों में तस्बीह करो ताकि तुम निहाल हो जाओ 130 और (ऐ रसूल) जो उनमें से कुछ लोगों को दुनिया की इस ज़रा सी जि़न्दगी की रौनक़ से निहाल कर दिया है ताकि हम उनको उसमें आज़माएँ तुम अपनी नज़रें उधर न बढ़ाओ और (इससे) तुम्हारे परवरदिगार की रोज़ी (सवाब) कहीं बेहतर और ज़्यादा पाएदार है 131 और अपने घर वालों को नमाज़ का हुक्म दो और तुम खु़द भी उसके पाबन्द रहो हम तुम से रोज़ी तो तलब करते नहीं (बल्कि) हम तो खु़द तुमको रोज़ी देते हैं और परहेज़गारी ही का तो अन्जाम बखै़र है 132 और (एहले मक्का) कहते हैं कि अपने परवरदिगार की तरफ से हमारे पास कोई मौजिज़ा हमारी मर्ज़ी के मुवाफिक़ क्यों नहीं लाते तो क्या जो (पेशीन गोइयाँ) अगली किताबों (तौरेत, इन्जील) में (इसकी) गवाह हैं वह भी उनके पास नहीं पहुँची 133 और अगर हम उनको इस रसूल से पहले अज़ाब से हलाक कर डालते तो ज़रूर कहते कि ऐ हमारे पालने वाले तूने हमारे पास (अपना) रसूल क्यों न भेजा तो हम अपने ज़लील व रूसवा होने से पहले तेरी आयतों की पैरवी ज़रूर करते 134 रसूल तुम कह दो कि हर शख़्स (अपने अंजाम कार का) मुन्तिज़र है तो तुम भी इन्तिज़ार करो फिर तो तुम्हें बहुत जल्द मालूम हो जाएगा कि सीधी राह वाले कौन हैं (और कज़ी पर कौन हैं) हिदायत याफ़ता कौन है और गुमराह कौन है। 135

(दुवा: ऐ हमारे पालने वाले जिस दिन (आमाल काहिसाब होने लगे मुझको और मेरे माँ बाप को और सारे ईमानदारों को तू बख्श दे। आमीन)

 

Saturday, January 23, 2021

सूरए अल अम्बिया 21


21 सूरए अल अम्बिया

सूरए अल अम्बिया मक्का में नाजि़ल हुई है और उसकी एक सौ बारह आयतें हैं

खु़दा के नाम से शुरू करता हूँ जो बड़ा मेहरबान रहम वाला है
लोगों के पास उनका हिसाब (उसका वक़्त) आ पहुँचा और वो हैं कि गफ़लत में पड़े मुँह मोड़े ही जाते हैं (1) जब उनके परवरदिगार की तरफ से उनके पास कोई नया हुक्म आता है तो उसे सिर्फ कान लगाकर सुन लेते हैं और (फिर उसका) हँसी खेल उड़ाते हैं (2) उनके दिल (आखि़रत के ख़्याल से) बिल्कुल बेख़बर हैं और ये ज़ालिम चुपके-चुपके कानाफूसी किया करते हैं कि ये शख़्स (मोहम्मद कुछ भी नहीं) बस तुम्हारे ही सा आदमी है तो क्या तुम दीदा व दानिस्ता जादू में फँसते हो (3) (तो उस पर) रसूल ने कहा कि मेरा परवरदिगार जितनी बातें आसमान और ज़मीन में होती हैं खू़ब जानता है (फिर क्यों कानाफूसी करते हो) और वह तो बड़ा सुनने वाला वाकि़फ़कार है (4) (उस पर भी उन लोगों ने इकतेफ़ा न की) बल्कि कहने लगे (ये कु़रआन तो) ख्वाबहाय परीशाँ का मजमूआ है बल्कि उसने खु़द अपने जी से झूट-मूट गढ़ लिया है बल्कि ये शख़्स शायर है और अगर हक़ीकतन रसूल है) तो जिस तरह अगले पैग़म्बर मौजिज़ों के साथ भेजे गए थे (5) उसी तरह ये भी कोई मौजिज़ा (जैसा हम कहें) हमारे पास भला लाए तो सही इनसे पहले जिन बस्तियों को तबाह कर डाला (मौजिज़े भी देखकर तो) ईमान न लाए (6) तो क्या ये लोग ईमान लाएँगे और ऐ रसूल हमने तुमसे पहले भी आदमियों ही को (रसूल बनाकर) भेजा था कि उनके पास वहीभेजा करते थे तो अगर तुम लोग खु़द नहीं जानते हो तो आलिमों से पूँछकर देखो (7) और हमने उन (पैग़म्बरों) के बदन ऐसे नहीं बनाए थे कि वह खाना न खाएँ और न वह (दुनिया में) हमेशा रहने सहने वाले थे (8) फिर हमने उन्हें (अपना अज़ाब का) वायदा सच्चा कर दिखाया (और जब अज़ाब आ पहुँचा) तो हमने उन पैग़म्बरों को और जिस जिसको चाहा छुटकारा दिया और हद से बढ़ जाने वालों को हलाक कर डाला (9) हमने तो तुम लोगों के पास वह किताब (कु़रआआन) नाजि़ल की है जिसमें तुम्हारा (भी) जि़क्रे (ख़ैर) है तो क्या तुम लोग (इतना भी) नहीं समझते (10) और हमने कितनी बस्तियों को जिनके रहने वाले सरकश थे बरबाद कर दिया और उनके बाद दूसरे लोगों केा पैदा किया (11) तो जब उन लोगों ने हमारे अज़ाब की आहट पाई तो एका एकी भागने लगे (12) (हमने कहा) भागो नहीं और उन्हीं बस्तियों और घरों में लौट जाओ जिनमें तुम चैन करते थे ताकि तुमसे कुछ पूछगछ की जाए (13) वह लोग कहने लगे हाए हमारी शामत बेशक हम सरकश तो ज़रूर थे (14) ग़रज़ वह बराबर यही पड़े पुकारा किए यहाँ तक कि हमने उन्हें कटी हुयी खेती की तरह बिछा के ठन्डा करके ढेर कर दिया (15) और हमने आसमान और ज़मीन को और जो कुछ इन दोनों के दरमियान है बेकार लगो नहीं पैदा किया (16) अगर हम कोई खेल बनाना चाहते तो बेशक हम उसे अपनी तजवीज़ से बना लेते अगर हमको करना होता (मगर हमें शायान ही न था) (17) बल्कि हम तो हक़ को नाहक़ (के सर) पर खींच मारते हैं तो वह बातिल के सर को कुचल देता है फिर वो उसी वक़्त नेस्तो नाबूद हो जाता है और तुम पर अफ़सोस है कि ऐसी-ऐसी नाहक़ बातें बनाया करते हो (18) हालाँकि जो (फरिश्ते) आसमान और ज़मीन में हैं (सब) उसी के (बन्दे) हैं और जो (फरिश्ते) उस सरकार में हैं न तो वो उसकी इबादत की शेख़ी करते हैं और न थकते हैं (19) रात और दिन उसकी तस्बीह किया करते हैं (और) कभी काहिली नहीं करते (20) उन लोगों ने जो माबूद ज़मीन में बना रखे हैं क्या वही (लोगों को) जि़न्दा करेंगे (21) (बा ग़रज़ मुहाल) ज़मीन व आसमान में खु़दा कि सिवा चन्द माबूद होते तो दोनों कब के बरबाद हो गए होते तो जो बातें ये लोग अपने जी से (उसके बारे में) बनाया करते हैं खु़दा जो अर्श का मालिक है उन तमाम ऐबों से पाक व पाकीज़ा है (22) जो कुछ वो करता है उसकी पूछगछ नहीं हो सकती (23) (हाँ) और उन लोगों से बाज़ पुरस्त होगी क्या उन लोगों ने खु़दा को छोड़कर कुछ और माबूद बना रखे हैं (ऐ रसूल) तुम कहो कि भला अपनी दलील तो पेश करो जो मेरे (ज़माने में) साथ है उनकी किताब (कु़रआन) और जो लोग मुझ से पहले थे उनकी किताबें (तौरेत वग़ैरह) ये (मौजूद) हैं (उनमें खु़दा का शरीक बता दो) बल्कि उनमें से अक्सर तो हक़ (बात) को तो जानते ही नहीं (24) तो (जब हक़ का जि़क्र आता है) ये लोग मुँह फेर लेते हैं और (ऐ रसूल) हमने तुमसे पहले जब कभी कोई रसूल भेजा तो उसके पास वहीभेजते रहे कि बस हमारे सिवा कोई माबूद क़ाबिले परसतिश नहीं तो मेरी इबादत किया करो (25) और (एहले मक्का) कहते हैं कि खु़दा ने (फरिश्तों को) अपनी औलाद (बेटियाँ) बना रखा है (हालाँकि) वह उससे पाक व पकीज़ा हैं बल्कि (वो फ़रिश्ते) (खु़दा के) मोअजि़्ज़ बन्दे हैं (26) ये लोग उसके सामने बढ़कर बोल नहीं सकते और ये लोग उसी के हुक्म पर चलते हैं (27) जो कुछ उनके सामने है और जो कुछ उनके पीछे है (ग़रज़ सब कुछ) वो (खु़दा) जानता है और ये लोग उस शख़्स के सिवा जिससे खुदा राज़ी हो किसी की सिफारिश भी नहीं करते और ये लोग खुद उसके ख़ौफ से (हर वक़्त) डरते रहते हैं (28) और उनमें से जो कोई ये कह दे कि खु़दा नहीं (बल्कि) मैं माबूद हूँ तो वह (मरदूद बारगाह हुआ) हम उसको जहन्नुम की सज़ा देंगे और सरकशों को हम ऐसी ही सज़ा देते हैं (29) जो लोग काफ़िर हो बैठे क्या उन लोगों ने इस बात पर ग़ौर नहीं किया कि आसमान और ज़मीन दोनों बस्ता (बन्द) थे तो हमने दोनों को शिगाफ़ता किया (खोल दिया) और हम ही ने जानदार चीज़ को पानी से पैदा किया इस पर भी ये लोग ईमान न लाएँगे (30) और हम ही ने ज़मीन पर भारी बोझल पहाड़ बनाए ताकि ज़मीन उन लोगों को लेकर किसी तरफ झुक न पड़े और हम ने ही उसमें लम्बे-चैड़े रास्ते बनाए ताकि ये लोग अपने-अपने मंजि़लें मक़सूद को जा पहुँचे (31) और हम ही ने आसमान को छत बनाया जो हर तरह महफूज़ है और ये लोग उसकी आसमानी निशानियों से मुँह फेर रहे हैं (32) और वही वह (क़ादिरे मुतलक़) है जिसने रात और दिन और आफ़ताब और माहताब को पैदा किया कि सब के सब एक (एक) आसमान में पैर कर चक्कर लगा रहे हैं (33) और (ऐ रसूल) हमने तुमसे पहले भी किसी फर्द व बशर को सदा की जि़न्दगी नहीं दी तो क्या अगर तुम मर जाओगे तो ये लोग हमेशा जिया ही करेंगे (34) (हर शख़्स एक न एक दिन) मौत का मज़ा चखने वाला है और हम तुम्हें मुसीबत व राहत में इम्तेहान की ग़रज़ से आज़माते हैं और (आखि़र कार) हमारी ही तरफ लौटाए जाओगे (35) और (ऐ रसूल) जब तुम्हें कुफ़्फ़ार देखते हैं तो बस तुमसे मसखरापन करते हैं कि क्या यही हज़रत हैं जो तुम्हारे माबूदों को (बुरी तरह) याद करते हैं हालाँकि ये लोग खु़द खु़दा की याद से इन्कार करते हैं (तो इनकी बेवकू़फी पर हँसना चाहिए) (36) आदमी तो बड़ा जल्दबाज़ पैदा किया गया है मैं अनक़रीब ही तुम्हें अपनी (कु़दरत की) निशानियाँ दिखाऊँगा तो तुम मुझसे जल्दी की (धूम) न मचाओ (37) और लुत्फ़ तो ये है कि कहते हैं कि अगर सच्चे हो तो ये क़यामत का वायदा कब (पूरा) होगा (38) और जो लोग काफि़र हो बैठे काश उस वक़्त की हालत से आगाह होते (कि जहन्नुम की आग में खडे़ होंगे) और न अपने चेहरों से आग को हटा सकेंगे और न अपनी पीठ से और न उनकी मदद की जाएगी (39) (क़यामत कुछ जता कर तो आने से रही) बल्कि वह तो अचानक उन पर आ पड़ेगी और उन्हें हक्का बक्का कर देगी फिर उस वक़्त उसमें न उसके हटाने की मजाल होगी और न उन्हें दी ही जाएगी (40) और (ऐ रसूल) कुछ तुम ही नहीं तुमसे पहले पैग़म्बरों के साथ मसख़रापन किया जा चुका है तो उन पैग़म्बरों से मसख़रापन करने वालों को उस सख़्त अज़ाब ने आ घेर लिया जिसकी वह हँसी उड़ाया करते थे (41) (ऐ रसूल) तुम उनसे पूछो तो कि खु़दा (के अज़ाब) से (बचाने में) रात को या दिन को तुम्हारा कौन पहरा दे सकता है उस पर डरना तो दर किनार बल्कि ये लोग अपने परवरदिगार की याद से मुँह फेरते हैं (42) क्या हमारे सिवा उनके कुछ और परवरदिगार हैं कि जो उनको (हमारे अज़ाब से) बचा सकते हैं (वह क्या बचाएँगे) ये लोग खु़द अपनी तो मदद कर ही नहीं सकते और न हमारे अज़ाब से उन्हें पनाह दी जाएगी (43) बल्कि हम ही से उनको और उनके बुज़ुर्गों को आराम व चैन रहा यहाँ तक कि उनकी उमरें बढ़ गई तो फिर क्या ये लोग नहीं देखते कि हम रूए ज़मीन को चारों तरफ से क़ब्ज़ा करते और उसको फतेह करते चले आते हैं तो क्या (अब भी यही लोग कुफ़्फ़ारे मक्का) ग़ालिब और वर हैं (44) (ऐ रसूल) तुम कह दो कि मैं तो बस तुम लोगों को वहीके मुताबिक़ (अज़ाब से) डराता हूँ (मगर तुम लोग गोया बहरे हो) और बहरों को जब डराया जाता है तो वह पुकारने ही को नहीं सुनते (डरें क्या ख़ाक) (45) और (ऐ रसूल) अगर कहीं उनको तुम्हारे परवरदिगार के अज़ाब की ज़रा सी हवा भी लग गई तो बेसाक़ता बोल उठें हाय अफसोस वाक़ई हम ही ज़ालिम थे (46) और क़यामत के दिन तो हम (बन्दों के भले बुरे आमाल तौलने के लिए) इन्साफ़ की तराज़ू में खड़ी कर देंगे तो फिर किसी शख़्स पर कुछ भी ज़ुल्म न किया जाएगा और अगर राई के दाने के बराबर भी किसी का (अमल) होगा तो तुम उसे ला हाजि़र करेंगे और हम हिसाब करने के वास्ते बहुत काफ़ी हैं (47) और हम ही ने यक़ीनन मूसा और हारून को (हक़ व बातिल की) जुदा करने वाली किताब (तौरेत) और परहेज़गारों के लिए अज़सरतापा नूर और नसीहत अता की (48) जो बिना देखे अपने परवरदिगार से ख़ौफ खाते हैं और ये लोग रोज़े क़यामत से भी डरते हैं (49) और ये (कु़रआन भी) एक बाबरकत तज़किरा है जिसको हमने उतारा है तो क्या तुम लोग इसको नहीं मानते (50) और इसमें भी शक नहीं कि हमने इबराहीम को पहले ही से फ़हेम सलीम अता की थी और हम उन (की हालत) से खू़ब वाकि़फ थे (51) जब उन्होंने अपने (मुँह भोले) बाप और अपनी क़ौम से कहा ये मूरतें जिनकी तुम लोग मुजाबिरी करते हो आखि़र क्या (बला) है (52) वह लोग बोले (और तो कुछ नहीं जानते मगर) अपने बडे़ बूढ़ों को इनही की परसतिश करते देखा है (53) इबराहीम ने कहा यक़ीनन तुम भी और तुम्हारे बुर्जु़ग भी खुली हुई गुमराही में पड़े हुए थे (54) वह लोग कहने लगे तो क्या तुम हमारे पास हक़ बात लेकर आए हो या तुम भी (यूँ ही) दिल्लगी करते हो (55) इबराहीम ने कहा मज़ाक नहीं ठीक कहता हूँ कि तुम्हारे माबूद बुत नहीं बल्कि तुम्हारा परवरदिगार आसमान व ज़मीन का मालिक है जिसने उनको पैदा किया और मैं खु़द इस बात का तुम्हारे सामने गवाह हूँ (56) और अपने जी में कहा खु़दा की क़सम तुम्हारे पीठ फेरने के बाद में तुम्हारे बुतों के साथ एक चाल चलूँगा (57) चुनान्चे इब्राराहीम ने उन बुतों को (तोड़कर) चकनाचूर कर डाला मगर उनके बड़े बुत को (इसलिए रहने दिया) ताकि ये लोग ईद से पलटकर उसकी तरफ रूजू करें (58) (जब कुफ़्फ़ार को मालूम हुआ) तो कहने लगे जिसने ये गुस्ताख़ी हमारे माबूदों के साथ की है उसने यक़ीनी बड़ा ज़ुल्म किया (59) (कुछ लोग) कहने लगे हमने एक नौजवान को जिसको लोग इबराहीम कहते हैं उन बुतों का (बुरी तरह) जि़क्र करते सुना था (60) लोगों ने कहा तो अच्छा उसको सब लोगों के सामने (गिरफ़्तार करके) ले आओ ताकि वह (जो कुछ कहें) लोग उसके गवाह रहें (61) (ग़रज़ इबराहीम आए) और लोगों ने उनसे पूछा कि क्यों इबराहीम क्या तुमने माबूदों के साथ ये हरकत की है (62) इबराहीम ने कहा बल्कि ये हरकत इन बुतों (खु़दाओं) के बड़े (खु़दा) ने की है तो अगर ये बुत बोल सकते हों तो उनही से पूछ के देखो (63) इस पर उन लोगों ने अपने जी में सोचा तो (एक दूसरे से) कहने लगे बेशक तुम ही लोग खु़द बर सरे नाहक़़ हो (64) फिर उन लोगों के सर इसी गुमराही में झुका दिए गए (और तो कुछ बन न पड़ा मगर ये बोले) तुमको तो अच्छी तरह मालूम है कि ये बुत बोला नहीं करते (65) (फिर इनसे क्या पूछे) इबराहीम ने कहा तो क्या तुम लोग खु़दा को छोड़कर ऐसी चीज़ों की परसतिश करते हो जो न तुम्हें कुछ नफा ही पहुँचा सकती है और न तुम्हारा कुछ नुक़सान ही कर सकती है (66) तुफ़ है तुम पर उस चीज़ पर जिसे तुम खु़दा के सिवा पूजते हो तो क्या तुम इतना भी नहीं समझते (67) (आखि़र) वह लोग (बाहम) कहने लगे कि अगर तुम कुछ कर सकते हो तो इब्राहीम को आग में जला दो और अपने खु़दाओं की मदद करो (68) (ग़रज़) उन लोगों ने इबराहीम को आग में डाल दिया तो हमने हुक्म दिया ऐ आग तू इबराहीम पर बिल्कुल ठन्डी और सलामती का बाइस हो जा (69) (कि उनको कोई तकलीफ़ न पहुँचे) और उन लोगों ने इबराहीम के साथ चालबाज़ी करनी चाही थी तो हमने इन सब को नाकाम कर दिया (70) और हम ने ही इबराहीम और लूत को (सरकशों से) सही व सालिम निकालकर इस सर ज़मीन (शाम बैतुलमुक़द्दस) में जा पहुँचाया जिसमें हमने सारे जहाँन के लिए तरह-तरह की बरकत अता की थी (71) और हमने इबराहीम को इनाम में इसहाक़ (जैसा बैटा) और याकू़ब (जैसा पोता) इनायत फरमाया हमने सबको नेक बख़्त बनाया (72) और उन सबको (लोगों का) पेशवा बनाया कि हमारे हुक्म से (उनकी) हिदायत करते थे और हमने उनके पास नेक काम करने और नमाज़ पढ़ने और ज़कात देने की वहीभेजी थी और ये सब के सब हमारी ही इबादत करते थे (73) और लूत को भी हम ही ने फ़हमे सलीम और नबूवत अता की और हम ही ने उस बस्ती से जहाँ के लोग बदकारियाँ करते थे नजात दी इसमें शक नहीं कि वह लोग बड़े बदकार आदमी थे (74) और हमने लूत को अपनी रहमत में दाखि़ल कर लिया इसमें शक नहीं कि वह नेकोंकार बन्दों में से थे (75) और (ऐ रसूल लूत से भी) पहले (हमने) नूह को नबूवत पर फ़ायज़ किया जब उन्होंने (हमको) आवाज़ दी तो हमने उनकी (दुआ) सुन ली फिर उनको और उनके साथियों को (तूफ़ान की) बड़ी सख़्त मुसीबत से नजात दी (76) और जिन लोगों ने हमारी आयतों को झुठलाया था उनके मुक़ाबले में उनकी मदद की बेशक ये लोग (भी) बहुत बुऱे लोग थे तो हमने उन सबको डुबा मारा (77) और (ऐ रसूल इनको) दाऊद और सुलेमान का (वाक़्या याद दिलाओ) जब ये दोनों एक खेती के बारे में जिसमें रात के वक़्त कुछ लोगों की बकरियाँ (घुसकर) चर गई थी फैसला करने बैठे और हम उन लोगों के कि़स्से को देख रहे थे (कि बाहम इक़तेलाफ़ हुआ) (78) तो हमने सुलेमान को (इसका सही फ़ैसला समझा दिया) और (यूँ तो) सबको हम ही ने फहमे सलीम और इल्म अता किया और हम ही ने पहाड़ों को दाऊद का ताबेए कर दिया था था कि उनके साथ (खु़दा की) तस्बीह किया करते थे और परिन्दों को (भी ताबेए कर दिया था) और हम ही (ये अजाऐब) किया करते थे (79) और हम ही ने उनको तुम्हारी जंगी पोशिश (जि़राह) का बनाना सिखा दिया ताकि तुम्हें (एक दूसरे के) वार से बचाए तो क्या तुम (अब भी) उसके शुक्रगुज़ार न बनोगे (80) और (हम ही ने) बड़े ज़ोरों की हवा को सुलेमान का (ताबेए कर दिया था) कि वह उनके हुक्म से इस सरज़मीन (बैतुलमुक़द्दस) की तरफ चला करती थी जिसमें हमने तरह-तरह की बरकतें अता की थी और हम तो हर चीज़ से खू़ब वाकि़फ़ थे (और) है (81) और जिन्नात में से जो लोग (समन्दर में) ग़ोता लगाकर (जवाहरात निकालने वाले) थे और उसके अलावा और काम भी करते थे (सुलेमान का ताबेए कर दिया था) और हम ही उनके निगेहबान थे (82) (कि भाग न जाएँ) और (ऐ रसूल) अय्यूब (का कि़स्सा याद करो) जब उन्होंने अपने परवरदिगार से दुआ की कि (ख़ुदा वन्द) बीमारी तो मेरे पीछे लग गई है और तू तो सब रहम करने वालो से (बढ़ कर है मुझ पर तरस खा) (83) तो हमने उनकी दुआ कु़बूल की तो हमने उनका जो कुछ दर्द दुख था रफ़ा कर दिया और उन्हें उनके लड़के बाले बल्कि उनके साथ उतनी ही और भी महज़ अपनी ख़ास मेहरबानी से और इबादत करने वालों की इबरत के वास्ते अता किए (84) और (ऐ रसूल) इसमाईल और इदरीस और जु़लकिफ़ली (के वाक़यात से याद करो) ये सब साबिर बन्दे थे (85) और हमने उन सबको अपनी (ख़ास) रहमत में दाखि़ल कर लिया बेशक ये लोग नेक बन्दे थे (86) और ज़वालऐ नून (यूनुस को याद करो) जबकि गुस्से में आकर चलते हुए और ये ख़्याल न किया कि हम उन पर रोज़ी तंग न करेंगे (तो हमने उन्हें मछली के पेट में पहुँचा दिया) तो (घटाटोप) अँधेरे में (घबराकर) चिल्ला उठा कि (परवरदिगार) तेरे सिवा कोई माबूद नहीं तू (हर ऐब से) पाक व पाकीज़ा है बेशक मैं कुसूरवार हूँ (87) तो हमने उनकी दुआ कु़बूल की और उन्हें रंज से नजात दी और हम तो ईमानवालों को यूँ ही नजात दिया करते हैं (88) और ज़करिया (को याद करो) जब उन्होंने (मायूसी की हालत में) अपने परवरदिगार से दुआ की ऐ मेरे पालने वाले मुझे तन्हा (बे औलाद) न छोड़ और तू तो सब वारिसों से बेहतर है (89) तो हमने उनकी दुआ सुन ली और उन्हें यहया सा बेटा अता किया और हमने उनके लिए उनकी बीवी को अच्छी बना दिया इसमें शक नहीं कि ये सब नेक कामों में जल्दी करते थे और हमको बड़ी रग़बत और ख़ौफ के साथ पुकारा करते थे और हमारे आगे गिड़गिड़ाया करते थे (90) और (ऐ रसूल) उस बीबी को (याद करो) जिसने अपनी अज़मत की हिफाज़त की तो हमने उन (के पेट) में अपनी तरफ से रूह फूँक दी और उनको और उनके बेटे (ईसा) को सारे जहाँन के वास्ते (अपनी क़ुदरत की) निशानी बनाया (91) बेशक ये तुम्हारा दीन (इस्लाम) एक ही दीन है और मैं तुम्हारा परवरदिगार हूँ तो मेरी ही इबादत करो (92) और लोगों ने बाहम (इक़तेलाफ़ करके) अपने दीन को टुकड़े -टुकड़े कर डाला (हालाँकि) वो सब के सब हिरफिर के हमारे ही पास आने वाले हैं (93) (उस वक़्त फैसला हो जाएगा कि) तो जो शख़्स अच्छे-अच्छे काम करेगा और वह ईमानवाला भी हो तो उसकी कोशिश अकारत न की जाएगी और हम उसके आमाल लिखते जाते हैं (94) और जिस बस्ती को हमने तबाह कर डाला मुमकिन नहीं कि वह लोग क़यामत के दिन हिरफिर के से (हमारे पास) न लौटे (95) बस इतना (तवक्कुफ़ तो ज़रूर होगा) कि जब याजूद माजूद (हद ऐ सिकन्दरी) की कै़द से खोल दिए जाएँगे और ये लोग (ज़मीन की) हर बुलन्दी से दौड़ते हुए निकल पड़ें (96) और क़यामत का सच्चा वायदा नज़दीक आ जाए तो फिर काफ़िरों की आँखे एक दम से पथरा दी जाएँ (और कहने लगे) हाय हमारी शामत कि हम तो इस (दिन) से ग़फलत ही में (पड़े) रहे बल्कि (सच तो यूँ है कि अपने ऊपर) हम आप ज़ालिम थे (97) (उस दिन किहा जाएगा कि ऐ कुफ़्फ़ार) तुम और जिस चीज़ की तुम खु़दा के सिवा परसतिश करते थे यक़ीनन जहन्नुम की ईधन (जलावन) होंगे (और) तुम सबको उसमें उतरना पड़ेगा (98) अगर ये (सच्चे) माबूद होते तो उन्हें दोज़ख़ में न जाना पड़ता और (अब तो) सबके सब उसी में हमेशा रहेंगे (99) उन लोगों की दोज़ख़ में चिंघाड़ होगी और ये लोग (अपने शोर व ग़ुल में) किसी की बात भी न सुन सकेंगे (100) ज़बान अलबत्ता जिन लोगों के वास्ते हमारी तरफ से पहले ही भलाई (तक़दीर में लिखी जा चुकी) वह लोग दोज़ख़ से दूर ही दूर रखे जाएँगे (101) (यहाँ तक) कि ये लोग उसकी भनक भी न सुनेंगे और ये लोग हमेशा अपनी मनमाँगी मुरादों में (चैन से) रहेंगे (102) और उनको (क़यामत का) बड़े से बड़ा ख़ौफ़ भी दहशत में न लाएगा और फ़रिश्ते उन से खु़शी-खु़शी मुलाक़ात करेंगे और ये खु़शख़बरी देंगे कि यही वह तुम्हारा (खु़शी का) दिन है जिसका (दुनिया में) तुमसे वायदा किया जाता था (103) (ये) वह दिन (होगा) जब हम आसमान को इस तरह लपेटेंगे जिस तरह ख़तों का तूमार लपेटा जाता है जिस तरह हमने (मख़लूक़ात को) पहली बार पैदा किया था (उसी तरह) दोबारा (पैदा) कर छोड़ेगें (ये वह) वायदा (है जिसका करना) हम पर (लाजि़म) है और हम उसे ज़रूर करके रहेंगे (104) और हमने तो नसीहत (तौरेत) के बाद यक़ीनन जुबूर में लिख ही दिया था कि रूए ज़मीन के वारिस हमारे नेक बन्दे होंगे (105) इसमें शक नहीं कि इसमें इबादत करने वालों के लिए (एहकामें खु़दा की) तबलीग़ है (106) और (ऐ रसूल) हमने तो तुमको सारे दुनिया जहाँन के लोगों के हक़ में अज़सरतापा रहमत बनाकर भेजा (107) तुम कह दो कि मेरे पास तो बस यही वहीआई है कि तुम लोगों का माबूद बस यकता खु़दा है तो क्या तुम (उसके) फरमाबरदार बन्दे बनते हो (108) फिर अगर ये लोग (उस पर भी) मुँह फेरें तो तुम कह दो कि मैंने तुम सबको यकसाँ ख़बर कर दी है और मैं नहीं जानता कि जिस (अज़ाब) का तुमसे वायदा किया गया है क़रीब आ पहुँचा या (अभी) दूर है (109) इसमें शक नहीं कि वह उस बात को भी जानता है जो पुकार कर कही जाती है और जिसे तुम लोग छिपाते हो उससे भी खू़ब वाकि़फ है (110) और मैं ये भी नहीं जानता कि शायद ये (ताख़ीरे अज़ाब तुम्हारे) वास्ते इम्तिहान हो और एक मोअययन मुद्दत तक (तुम्हारे लिए) चैन हो (111) (आखि़र) रसूल ने दुआ की ऐ मेरे पालने वाले तू ठीक-ठीक मेरे और काफिरों के दरम्यिान फैसला कर दे और हमार परवरदिगार बड़ा मेहरबान है कि उसी से इन बातों में मदद माँगी जाती है जो तुम लोग बयान करते हो (112)

(दुवा: ऐ हमारे पालने वाले जिस दिन (आमाल का) हिसाब होने लगे मुझको और मेरे माँ बाप को और सारे ईमानदारों को तू बख्श दे। आमीन)